● प्रत्येक किरदार के लिए एक मुखोटा बनाया जाता है तथा उनका पहनावा 40 दिन तक एक जैसा रहता है।
● गवरी नृत्य नाट्य राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है जो लोक नाट्यो का मेरुनाट्य कहा जाता है।
● गवरी नृत्य केवल अपने गाँव में ही नही खेला जाता है अपितु प्रत्येक दिन उस गाँव में भी जाता है जहाँ उनके गाँव की बहन-बेटी की शादी करवाई जाती है।
● जिस गाँव में गवरी खेली जाती है उस गाँव में उनके भोजन की व्यवस्था गाँव में शादी की हुई बहन-बेटी के द्वारा ही की जाती है।
समापन ” गलावाण और वलावण”-:
● गवरी का समापन ” गलावण और वलावण” की रस्म के साथ होता है।
● माँ पार्वती या गोरजा की प्रतिमा जिस दिन बनाई जाती है उसे “गलावण” अर्थात बनाने का दिन कहते है।
● जिस दिन इस प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है उसे “वलावण” कहते है।
● एक दिन पूर्व सांय को भील समाज के लोग नृत्य करते हुए गाँव के कुम्हार के घर जाते जहाँ पूजा अर्चना कर मिट्टी के हाथी पर गोरजा की प्रतिमा को एक सवारी के रूप में माता जी के मंदिर में लाते है और यहाँ रातभर गवरी खेल का आयोजन होता है।
● गवरी समाप्ति के दो दिन पूर्व जवारे बोए जाती है।
● वल्लावण में गाँव के सभी वर्गों के लोग एकत्रित होकर माँ गोरजा की शोभायात्रा निकालते एवं माँ की प्रतिमा का विसर्जन गाँव के किसी जलाशय में कर दिया जाता है।
● वलावण के बाद गवरी के प्रमुख वाद्य “माँदल” को खूंटी पर रख दिया जाता है।
● इस पर्व पर कलाकारों के लिए रिश्तेदार,परिजन एवं गाँव के लोग पोशाकें, पगड़ी लाते है। जिसे ” पहिरावाणी” कहते है।
राजस्थान के इतिहास में भील जनजाति का योगदान अविस्मरणीय है और आज भी “गवरी” नृत्य के माध्यम से भील जनजाति ने राजस्थान को विश्व प्रसिद्ध बना रखा है।